एक ज़मीं पे ग़ज़ल: तीन मक़बूल शाइर
सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है
देखना है ज़ोर कितना बाज़ू-ए-क़ातिल में है
—बिस्मिल अज़ीमाबादी
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चर्चा अपने क़त्ल का अब दुश्मनों के दिल में है,
देखना है ये तमाशा कौन सी मंज़िल में है
—राम प्रसाद 'बिस्मिल'
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सादगी पर उस की मर जाने की हसरत दिल में है
बस नहीं चलता कि फिर ख़ंजर कफ़-ए-क़ातिल में है
—मिर्ज़ा ग़ालिब
उपरोक्त तीन मतलों में प्रयुक्त क़ाफ़िये 'दिल', 'क़ातिल', 'मंज़िल' का प्रयोग है और रदीफ़ 'में है '!
यानि एक ही ज़मीन पे कही गईं तीन अलग-अलग ग़ज़लें हैं। जिन्हें तीन शा'इरों
ने अलग-अलग वक़्त में, अलग-अलग जगहों पर कहा! मगर इन ग़ज़लों का जलवा-ओ-जलाल
आज भी बरक़रार है! 'बिस्मिल' अज़ीमाबादी जी की ग़ज़ल को 'काकोरी काण्ड' में
फाँसी की सज़ा पाने वाले सुप्रसिद्ध क्रन्तिकारी रामप्रसाद 'बिस्मिल' जी
द्वारा लोकप्रिय बनाने के बाद भगत सिंह और उनके साथी क्रांतिकारियों द्वारा
भी खूब गाया गया और आज़ादी की लड़ाई में ये सबसे चर्चित उर्दू ग़ज़ल के रूप
में जानी गई है। इस आलेख के ज़रिये मैं तीनों ग़ज़लों को पाठकों के सम्मुख रख
रहा हूँ.... ताकि वक़्त के साथ उभरी भ्रांतियां दूर हो सकें!
शा'इर बिस्मिल अज़ीमाबादी (1901 ई.–1978 ई.) का पूरा नाम सय्यद शाह मोहम्मद हसन था। आप पटना, बिहार के उर्दू कवि थे। वर्ष 1921 ई.में उन्होंने "सरफरोशी की तमन्ना" नामक देशभक्ति ग़ज़ल कही थी। जो इस प्रकार है:—
सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है
देखना है ज़ोर कितना बाज़ू-ए-क़ातिल में है
ऐ शहीद-ए-मुल्क-ओ-मिल्लत मैं तिरे ऊपर निसार
ले तिरी हिम्मत का चर्चा ग़ैर की महफ़िल में है
वाए क़िस्मत पाँव की ऐ ज़ोफ़ कुछ चलती नहीं
कारवाँ अपना अभी तक पहली ही मंज़िल में है
रहरव-ए-राह-ए-मोहब्बत रह न जाना राह में
लज़्ज़त-ए-सहरा-नवर्दी दूरी-ए-मंज़िल में है
शौक़ से राह-ए-मोहब्बत की मुसीबत झेल ले
इक ख़ुशी का राज़ पिन्हाँ जादा-ए-मंज़िल में है
आज फिर मक़्तल में क़ातिल कह रहा है बार बार
आएँ वो शौक़-ए-शहादत जिन के जिन के दिल में है
मरने वालो आओ अब गर्दन कटाओ शौक़ से
ये ग़नीमत वक़्त है ख़ंजर कफ़-ए-क़ातिल में है
माने-ए-इज़हार तुम को है हया, हम को अदब
कुछ तुम्हारे दिल के अंदर कुछ हमारे दिल में है
मय-कदा सुनसान ख़ुम उल्टे पड़े हैं जाम चूर
सर-निगूँ बैठा है साक़ी जो तिरी महफ़िल में है
वक़्त आने दे दिखा देंगे तुझे ऐ आसमाँ
हम अभी से क्यूँ बताएँ क्या हमारे दिल में है
अब न अगले वलवले हैं और न वो अरमाँ की भीड़
सिर्फ़ मिट जाने की इक हसरत दिल-ए-'बिस्मिल' में है
बिस्मिल अज़ीमाबादी जी की इस ग़ज़ल को महान भारतीय क्रान्तिकारी शा'इर राम प्रसाद 'बिस्मिल' (1897 ई. —1927 ई.) ने मुकदमे के दौरान सन 1927 ई. में अदालत में अपने साथियों के साथ सामूहिक रूप से गाकर लोकप्रिय बना दिया। जिससे भरम यह फैल गया कि ये ग़ज़ल राम प्रसाद 'बिस्मिल' जी ने कही। भरम का दूसरा कारण यह भी था कि ग़ज़ल के मक़्ते में जो 'बिस्मिल' उपनाम है। वह दोनों शा'इरों का एक समान है। जबकि इसी ज़मीन पर रामप्रसाद बिस्मिल जी की ग़ज़ल यूँ है:—
चर्चा अपने क़त्ल का अब दुश्मनों के दिल में है
देखना है ये तमाशा कौन सी मंज़िल में है
कौम पर कुर्बान होना सीख लो ऐ हिन्दियो
ज़िन्दगी का राज़े-मुज्मिर खंजरे-क़ातिल में है
साहिले-मक़सूद पर ले चल खुदारा नाखुदा
आज हिन्दुस्तान की कश्ती बड़ी मुश्किल में है
दूर हो अब हिन्द से तारीकि-ए-बुग्जो-हसद
अब यही हसरत यही अरमाँ हमारे दिल में है
बामे-रफअत पर चढ़ा दो देश पर होकर फना
'बिस्मिल' अब इतनी हविश बाकी हमारे दिल में है
लेकिन
दोनों महान शा'इरों के जन्म से काफ़ी पहले उर्दू शा'इरी के आफ़ताब मिर्ज़ा
असदुल्लाह ख़ान ग़ालिब इसी क़ाफ़िया रदीफ़ पर ये ग़ज़ल कह गए थे, जो बाद में इन
दोनों शा'इरों के लिए उम्दा देशभक्ति ग़ज़ल कहने की ज़मीन बनी। मिर्ज़ा ग़ालिब
की ग़ज़ल यूँ है:—
सादगी पर उस की मर जाने की हसरत दिल में है
बस नहीं चलता कि फिर ख़ंजर कफ़-ए-क़ातिल में है
देखना तक़रीर की लज़्ज़त कि जो उस ने कहा
मैं ने ये जाना कि गोया ये भी मेरे दिल में है
गरचे है किस किस बुराई से वले बाईं-हमा
ज़िक्र मेरा मुझ से बेहतर है कि उस महफ़िल में है
बस हुजूम-ए-ना-उमीदी ख़ाक में मिल जाएगी
ये जो इक लज़्ज़त हमारी सई-ए-बे-हासिल में है
रंज-ए-रह क्यूँ खींचिए वामांदगी को इश्क़ है
उठ नहीं सकता हमारा जो क़दम मंज़िल में है
जल्वा ज़ार-ए-आतिश-ए-दोज़ख़ हमारा दिल सही
फ़ित्ना-ए-शोर-ए-क़यामत किस के आब-ओ-गिल में है
है दिल-ए-शोरीदा-ए-'ग़ालिब' तिलिस्म-ए-पेच-ओ-ताब
रहम कर अपनी तमन्ना पर कि किस मुश्किल में है
इस तरह अनजाने में ही सही मिर्ज़ा ग़ालिब ने एक सदी पहले आने वाले देशभक्त शाइरों के लिए प्रेरणा का कार्य किया। हालाँकि भारतीय स्वतन्त्रता का प्रथम युद्ध 1857 ई. मिर्ज़ा ग़ालिब (1797 ई.—1869 ई.) के जीवनकाल में ही हुआ था। अंग्रेज़ों ने इसे गदर (सिपाही विद्रोह) कहा! जब तक कि अखिल भारतीय हिन्दू महासभा के संस्थापक वीर सावरकर जी की किताब "The Indian War of Independence—1857" (वर्ष 1909 ई.) न आई थी। जिन्होंने पहली बार गदर को 'प्रथम स्वाधीनता समर' कहा था। अपनी इस किताब में सनसनीखेज व खोजपूर्ण इतिहास लिख कर ब्रिटिश शासन को हिला दिया था। ख़ैर ग़ालिब ने न तो इस युद्ध का समर्थन किया और न ही विरोध क्योंकि बृद्ध अवस्था में दिनों-दिन बढ़ती मुफ़लिसी ने फटेहाल ग़ालिब को किसी विरोध के लायक नहीं छोड़ा था। 1857 ई. के युद्ध में ग़ालिब का तटस्थ रहने के पीछे जो मूल कारण रहा, वह अंग्रेज़ों द्वारा ज़ारी उनकी पेंशन थी। जो कि कुछ वर्षों तक उन्हें अंग्रेज़ों से इस कारण नहीं मिली कि वह यह नहीं बता पाए कि गदर में ग़ालिब अंग्रेज़ों के हिमायती थे या सिपाहियों के? हालाँकि बाद में ग़ालिब को गदर में बेदाग़ पाया गया और उनकी रुकी हुई पूरी एकमुश्त पेंशन बहाल हुई! 1857 ई. के युद्ध ने ढहते मुग़ल साम्राज्य (1526 ई.—1857 ई.) के ताबूत में अन्तिम कील ठोक दी थी और मुग़ल बादशाह शा'इर ज़फ़र (1775 ई.— 1862 ई.) को रंगून भेज दिया गया। जहाँ उन्होंने मरते-मरते ये शेर कहा:—
कितना है बद-नसीब 'ज़फ़र' दफ़्न के लिए
दो गज़ ज़मीन भी न मिली कू-ए-यार में
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Niraj Pandey
11-Oct-2021 11:46 PM
बहुत ही बेहतरीन
Reply
Seema Priyadarshini sahay
30-Sep-2021 12:07 PM
बहुत बढ़िया जानकारी सर
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Sahil writer
18-Sep-2021 02:17 PM
Bahut achi achi jankari dete h ap iska ap ka bahut bahut abhar 🙏🙏
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